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उपो॑ अदर्शि शु॒न्ध्युवो॒ न वक्षो॑ नो॒धा इ॑वा॒विर॑कृत प्रि॒याणि॑। अ॒द्म॒सन्न स॑स॒तो बो॒धय॑न्ती शश्वत्त॒मागा॒त्पुन॑रे॒युषी॑णाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upo adarśi śundhyuvo na vakṣo nodhā ivāvir akṛta priyāṇi | admasan na sasato bodhayantī śaśvattamāgāt punar eyuṣīṇām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उपो॒ इति॑। अ॒द॒र्शि॒। शु॒न्ध्युवः॑। न। वक्षः॑। नो॒धाःऽइ॑व। आ॒विः। अ॒कृ॒त॒। प्रि॒याणि॑। अ॒द्म॒ऽसत्। न। स॒स॒तः। बो॒धय॑न्ती। श॒श्व॒त्ऽत॒मा। आ। अ॒गा॒त्। पुनः॑। आ॒ऽई॒युषी॑णाम् ॥ १.१२४.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे प्रभातवेला (वक्षः) पाये पदार्थ को (शुन्ध्युवः) सूर्य की किरणों के (न) समान वा (प्रियाणि) प्रिय वचनों की (नोधाइव) सब शास्त्रों की स्तुति प्रशंसा करनेवाले विद्वान् के समान वा (अद्मसत्) भोजन के पदार्थों को पकानेवाले के (न) समान (ससतः) सोते हुए प्राणियों को (बोधयन्ती) निरन्तर जगाती हुई और (एयुषीणाम्) सब ओर से व्यतीत हो गईं प्रभात वेलाओं की (शश्वत्तमा) अतीव सनातन होती हुई (पुनः) फिर (आ, अगात्) आती और (आविरकृत) संसार को प्रकाशित करती वह हम लोगों ने (उपो) समीप में (अदर्शि) देखी, वैसी स्त्री उत्तम होती है ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो स्त्री प्रभात वेला वा सूर्य वा विद्वान् के समान अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्वान् करती है, वह सबको सत्कार करने योग्य है ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यथोषा वक्षः शुन्ध्युवो न प्रियाणि नोधाइवाद्मसन्न ससतो बोधयन्त्येयुषीणां शश्वत्तमा सती पुनरागादाविरकृत च साऽस्माभिरुपो अदर्शि तथाभूताः स्त्रियो वरा भवन्ति ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उपो) सामीप्ये (अदर्शि) दृश्यते (शुन्ध्युवः) आदित्यकिरणाः। शुन्ध्युरादित्यो भवति। निरु० ४। १६। (न) उपमायाम्। निरु० १। ४। (वक्षः) प्राप्तं वस्तु। वक्ष इति पदनामसु। निघं० ४। २। (नोधा इव) यो नौति सर्वाणि शास्त्राणि तद्वत्। नुवो धुट् च। उणा० ४। २२६। अनेन नुधातोरसिप्रत्ययो धुडागमश्च (आविः) प्राकट्ये (अकृत) करोति (प्रियाणि) वचनानि (अद्मसत्) योऽद्मानि सादयति परिपचति सः (न) इव (ससतः) स्वपतः प्राणिनः (बोधयन्ती) जागारयन्ती (शश्वत्तमा) यातिशयेन सनातनी (आ) (अगात्) प्राप्नोति (पुनः) (एयुषीणाम्) समन्तादतीतानामुषसाम् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्काराः। या स्त्र्युषर्वत्सूर्यवद्विद्वद्वच्च स्वापत्यानि सुशिक्षया विदुषः करोति सा सर्वैः सत्कर्त्तव्येति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी स्त्री उषा, सूर्य, विद्वानाप्रमाणे आपल्या संतानांना उत्तम शिक्षण देऊन विद्वान करते ती सर्वांनी सत्कार करण्यायोग्य असते. ॥ ४ ॥